मंगल ग्रह जगतपालक विष्णु व पृथ्वी के संयोग का फल है। एक बार मंगल की मातेश्वरी पृथ्वी, भगवान विष्णु पर मुग्ध हो गई थी और लावण्यमयी तरुणी का स्वरूप धारण करके विष्णु के समक्ष उपस्थित हुई। विष्णु ने उसका श्रृंगार किया, किन्तु तब तक मातेश्वरी पृथ्वी कामार्त होकर बेहोश हो गई थी, ऐसी विषम स्थिति में विष्णु ने पृथ्वी का काम शान्त किया और इसी संयोग से मंगल गर्भस्थ प्रादुर्भूत हुआ। यह मंगल के जन्म का रहस्यात्मक कारण है-
‘‘अवंतिदेशोद्भव भारद्वाज गोत्र भौम्’’
(-ब्रह्मवैवर्त पुराण)
मंगल को विविध नामों से सम्बोधन मिला है जैसे- अंगारक, भौम, धरासुत, कुज, आर, वक्र, आवनेय, महीज, रक्ताक्ष, लोहितांग, ताम्रवर्ण, भूमिसुत आदि।
मंगल ग्रह के अवतरण के समय ब्रह्माण्ड चक्र विशिष्ठ स्थिति में त्वरित गति से गतिशील था। लग्न में स्वगृही मंगल, वृश्चिक लग्न, उस पर बृहस्पति, शनि, चन्द्र की पूर्ण दृष्टि थी। धनभाव में उच्च का केतु धनुराशिस्थ था। यह पापत्व और मलिन परिवार का परिचायक है। सुखभाव में स्वगृही शनिदेव आरूढ़ थे। जिस पर स्वगृही सूर्य की सप्तम पूर्ण दृष्टि, इस कारण भूमि ही मंगल का सुख है। मंगल भूमि का प्रतीक है। पंचम भाव पर स्वगृही बृहस्पति विराजमान थे, जिस पर लाभ भावस्थित बुध की पूर्ण दृष्टि, जो मंगल के संतान सुख और बौद्धिक सुख को सामान्य बनाने के लिए पर्याप्त था। सप्तम भाव में उच्च का चन्द्रमा लौकिक सुख की वृद्धि का कारण बन गया था। उच्च का राहु मिथुन के अष्टम में दीर्घायु का कारक बन गया था। दसम् भाव में स्वगृही सूर्य, मंगल के राज्यप्रभाव व बल की प्रबलता को प्रकट कर रहा था। लाभ भाव में बुध स्वगृही लाभेश, व्यय भाव में शुक्र स्वगृही व्ययेश परस्पर उच्च सीमा में संतुलित बन रहे थे। यह स्थिति भृगु संहिता में भी अंकित है।
सूर्यदेव की तरह मंगल भी पूर्व में उदय और पश्चिम में अस्त होता है। वह अस्त होने के 4 माह बाद उदय होता है। उदय के 10 माह बाद वक्री होता है। वक्री के 2 माह बाद मार्गी और मार्गी के 10 माह बाद अस्त होता है। सूर्य मंगल से अल्प गति में चलता है। अष्टरंगी गति का यही रहस्यात्मक कारण है।
मंगल अपनी धुरी पर लगभग 24 घंटे 37 मिनट में एक चक्कर पूरा कर लेता है। सौर मंडल की परिक्रमा पूरी करने में लगभग 687 दिन लेता है। मंगल एक राशि पर लगभग डेढ़ मास तक गतिशील रहता है। यह पृथ्वी के निकट का ग्रह है फिर भी लगभग पृथ्वी से सवा छः करोड़ मील दूर है।
मंगल का प्रथम क्षेत्र मेष राशि है जो 00 से 300 तक भचक्र का क्षेत्र है। यह नेतृत्व का प्रतीक है। जो क्रूर, चंचल, चर, युवा, रक्तवर्ण, अग्नितत्व की चतुष्पदी, रजोगुणी, पित्त प्रकृति, पृष्ठोदयी, विषम राशि (मेष) है। यह धातुसंज्ञक लघुकाय, प्रवासी पुरुष राशि है जिसकी उत्पत्ति पाटल देश से हुई।
मंगल का द्वितीय क्षेत्र वृश्चिक राशि है जो भचक्र के 2100 से 2400 तक का क्षेत्र है। अनुराग आसक्ति का प्रतीक है। जो वृहदकाय स्त्री राशि, तीक्ष्ण, जड़संज्ञक, पाषाण, उत्तरवासी, विष, सौम्य, स्थिर शान्त युवा राशि है। यह कफ प्रकृति, ब्राह्मण जाति, शीर्षोदयी तमोगुणी, जलयुक्त, भूचारी है। इसका वर्ण सुनहला है। इसकी उत्पत्ति मलय देश से हुई। मंगल कालपुरुष के सिर मुख मस्तिष्क एवं स्नायु पर प्रभावी रहता है। गुप्तेन्द्रियों, उरु, जंघा और मूत्राशय पर मंगल का प्रभाव होता है। मंगल को नेतृत्व और सैन्य संचालन का ही कार्य सौंपा गया है। सारे संसार में मंगल के नेतृत्व का डंका बजता है। शनिदेव का इशारा पाकर मंगल युद्ध की परिस्थितियों बना देता है। मंगल की युद्धप्रियता के कारण शनिदेव की राशि मकर मंगल को उच्च स्थान मिला है किंतु शनि को मंगल की मेष राशि में नीचत्व प्राप्त है। विश्व के हृदय संचालक चन्द्र को मंगल ने अपनी वृश्चिक राशि में नीचत्व प्रदान किया है। चन्द्र के घर कर्क में जाकर मंगल भी नीच हो जाता है। गुरु (बृ0) मंगल का मित्र है किन्तु परस्पर विरोधी कारकत्व रखते हैं। जहां मंगल मकर राशि में उच्च का होता है वहीं गुरुदेव नीच के बन जाते हैं। गुरु की उच्च-राशि कर्क में मंगल को नीच बन जाना पड़ता है। यहां ज्ञान के प्रकाश में सर्व मोहमाया नष्ट हो जाती हैं। मंगल निर्बल होकर निष्फल हो जाता है। मंगल ने सूर्य को ही अपनी राशि मेष में उच्च स्थान दिया है।
मंगल ग्रह- पुरुष, क्षत्रिय, अग्नितत्व, कड़वारस प्रेमी, दक्षिण दिशा का स्वामी 26 से 32 वर्ष की आयु तक प्रभाव रखकर फल देता है। मंगल मूल जाति सुनार पर प्रमादी होता है। व्रण व तिल मंगल का प्रतीक है। इसके दीप्तांश 7 एवं कलांश 9 हैं। मंगल को सप्ताह का तीसरा दिन मिला है जो मंगलवार के नाम से प्रचलित है। यह 9 की संख्या पर पूर्ण प्रभावी रहता है जैसे सितम्बर माह 9, 18, 27 तारीख आदि। विंशोत्तरी दशा में मंगल को 7 वर्ष मिले हैं। मंगल ऊर्ध्व दृष्टिवान ग्रह है। अपनी स्थिति से चतुर्थ, सप्तम, अष्टम भावों को पूर्ण दृष्टि से देखता है। मंगल के नक्षत्र मृगशिरा, चित्रा और धनिष्ठा है। च, ल, न, य अक्षरों से प्रारम्भ होने वाले नाम के नाम जातक मंगल को सर्वदा प्रिय लगते हैं। मंगल का रत्न मूंगा (प्रवाल) है। अन्न-मसूर की दाल धातु, तांबा है गुड़, सरसों, लालमिर्च, शक्कर, सुपारी, रुई, रसों पर प्रभावी होता है। किसी भी जातक की जन्मकुण्डली में मंगल मेष राशि में अष्टमस्थ होकर युद्ध में, वृष राशि में अष्टमस्थ होकर पशुओं की चोरी के प्रतिकार में, मिथुन में अष्टमस्थ होकर स्व-हाथ से कर्क में शत्रुओं से, सिंह में सर्प, कन्या में पत्थर की चोट से, तुला में लकड़ी के आघात से, वृश्चिक में कुएं से, मकर में गुप्त रोग से, कुम्भ में विष से और मीन राशि में अष्टमस्थ होकर मंगल चोरों से प्रहार से मृत्यु कराता है।
मंगल, मेष, वृश्चिक इन दो राशियों पर स्वगृही होता है। स्वगृही होकर राज्याधिकारों ये युक्त करके कुल में प्रसिद्धि देता है। ऐसा जातक साहसी, ओजस्वी, चतुर व उग्र स्वभावी होता है। मंगल, मकर राशि में उच्च का होता है। उच्च का होकर प्रसिद्ध वीर नीतिज्ञ राज्य के उच्च पदासीन, धनवान बनाकर उन्नति कराता है। मंगल, कर्क राशि में नीच का होता है। नीच का होकर कठोर, दुःसाहसी, उदर रोगी, कृषि कार्यों में रुचि, लो-ब्लड प्रेशर वाला होता है। मंगल मित्रक्षेत्री (सू0 बृ0 च0 की राशियों पर) होकर शुभफल और शत्रुक्षेत्री बुध की राशि पर अशुभ फल दाता गर्मी, शस्त्रघात, अग्निभय, पित्त रोग, ज्वर, रक्तविकार, संक्रामक रोग देता है।
मंगल पुरुषों के लिए पराक्रम और वीर्य की ऊष्णता में निवास करता है। स्त्रियों में रज के रूप में कामोत्तेजना उत्पन्न करता है। नारी की पवित्र कन्या संज्ञा का मंगल ही उसे उच्छेदन करके रजस्वला बनाते हुए महिला बनाता है। मंगल युवतियों को लगभग प्रत्येक माह में चन्द्र से प्रभावित होकर रजोदर्शन के रूप में मासिक धर्म का स्राव देता है।
प्रत्येक मंगलवार को मंगल के प्रारूप हनुमान की भक्ति करे ‘ऊँ क्रां क्रीं क्रों सः भौमाय नमः। ऊं ऐं ह्रीं हनुमते रामदूताय नमः।