निरोगता रखने वाले खाद्य-पेय पदार्थों में तक्र (मट्ठा) कितना उपयोगी है इसको सभी जानते हैं। यह स्वादिष्ट, सुपाच्य, बल, ओज को बढ़ाने वाला एवं स्फूर्तिदायक होता है। उदर रोग एवं विकार-विह्वल व्यक्तियों के लिये यह रामबाण सदृश्य सटीक औषधि है। ‘योग रत्नाकर’ नामक ग्रन्थ के प्रणेता इसके गुणों पर मुग्ध होकर घोषणा करते है :-
कैलाशे यदि तक्रमस्ति गिरिशः किं नीलकण्ठोभवेद्
बैकुण्ठे यदि कृष्णतामनुभवेद्यापि किं केशवः।
इन्द्रो दुर्भगता क्षयं द्विजपतिर्लम्बोरत्व गणः
कुष्ठित्वं च कुबेरको दहनतामश्ग्निश्च किं विन्दति।
अर्थात कैलाश पर यदि तक्र रहता तो क्या भगवान शिव नीलकण्ठ ही रहते (समुद्र मन्थन के वक्त जो चौदह रत्न निकले उनमें हलाहल नाम का विष भी निकला जिसे भगवान शिव ने लोक कल्याण को दृष्टिगत रखते हुए पी लिया तथा उसे कण्ठ में ही धारण कर लिया तभी से भगवान शंकर नीलकण्ठ कहलाने लगे)। वैकुण्ठ (स्वर्ग) में यदि तक्र होता तो क्या केशव (भगवान विष्णु) सांवले ही रहते ? देवराज इन्द्र क्या दुर्भग नामक सौंदर्यहीनता से ग्रसित रहते ? चन्द्रमा जैसे द्विजपति को क्षय रोग होता ? विध्न निवारक श्रीगणेश जी का पेट क्या इतना लम्बा होता ? कुबेर को क्या कुष्ठ रहता? अग्नि के अन्दर क्या दाह होती ? कभी भी नहीं क्योंकि तक्र के सेवन से विष, विवर्णता, असौंदर्य, क्षय, उदर रोग, कुष्ठ एवं दाह आदि रोग नष्ट हो जाते हैं।
ग्रन्थकार आगे लिखते हैं:-
न तक्रसेवी व्यथते कदाचिन्न तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगाः।
तथा सुराणाममृतं प्रधानं तथा नराणां भुवि तक्र माहुः।।
तक्र (मट्ठे) के विविध भेद और गुण– आयुर्वेद ज्ञाताओं की दृष्टि में भिन्न-भिन्न लक्षणों के आधार पर मट्ठे का वर्गीकरण- उदश्वित, मथित, घोल और तक्र के रूप में चार प्रकार से किया गया है-
उदश्विन्मथितं घोलं तक्र ज्ञेयं चतुर्विधम्।
ससरं निर्जलं घोलं मथितं सरवर्जितम्।
तक्र पादजलं प्रोक्तमुदश्विच्चार्धवारिकम्।
योगरत्नाकर के मत से- जिस दही में आधा जल देकर मथा जाय उसे उदश्वित कहते हैं। दिवोदास प्रभूति आचार्यों के मत से ऐसी दही को ही तक्र कहा जाता है।
वातपित्तहरं घोलं मथितं कफपित्तनुत्।
तक्रं त्रिदोषशमनमुदाश्वित्कफदं स्मृतम्।
तक्र का घोल वात, पित्तनाशक है। मथित (जो दही बिना जल मिलाये मथी जाय) कफ, पित्तनाशक तथा तक्र (जिस दही में चतुर्थांश जल मिला कर मथा जाय) त्रिदोष नाशक अर्थात वात, पित्त एवं कफ रोगों को नाश करने वाला होता है।
गाय के तक्र के गुण:- गाय का तक्र दीपन, पाचन, बुद्धिवर्द्धक, अर्श (बवासीर) एवं त्रिदोष नाशक है तथा गुल्म, अतिसार, प्लीहा, अर्श एवं ग्रहणी रोगों में हितकर है।
दोष भेद से तक्र के गुण:-
(1) वातरोग में अम्ल रस युक्त तक्र एवं सेंधा नमक मिलाकर सेवन करना हितकर है।
(2) पित्तरोग में मधुर रसयुक्त एवं चीनी मिला तक्र उपयोगी होता है।
(3) कफ रोग में रूक्ष एवं त्रिकुट (सोंठ, मरिच, पिपर मिला) एवं क्षारयुक्त तक्र हितकर होता है।
(4) मूत्र कृच्छ रोग में गुड़ के साथ तथा पाण्डु रोग में इसका सेवन चित्रक के साथ श्रेयस्कर होता है।
(5) तक्र का हींग, जीरा और सेंधा नमक मिला हुआ घोल वातनाशक, बवासीर एवं अतिसार को दूर करने वाला होता है।
(7) शीतऋतु में अग्नि माद्य, कफ, वात रोग, अरुचि एवं óोतों के अवरोध में तक्र का सेवन अमृत की भांति हितकर होता है।
नैव तक्रं क्षते दद्यानोष्णकाले न दुर्बले।
नमूच्र्छाभ्रमदाहेषु न रोगे रक्त पित्तजे।।
अर्थात जो रोगी क्षत रोग से ग्रसित हों, उष्णकाल, दुर्बलता, मूच्र्छा, भ्रम एवं रक्त-पित्त से उत्पन्न रोगों में तक्र हानिकारक होता है।
कच्चे एवं गर्म किये तक्र के गुण:- कच्चा तक्र कोष्ठों में जमा हुये कफ का नाश करता है एवं कण्ठ में स्थित कफ की वृद्धि करता है। पीनस, श्वास कासादिक में गर्म किया हुआ तक्र हितकर होता है।
तक्र के आठ गुणों को सदैव याद रखना चाहिये:-
क्षुद्वार्धनं नेत्ररूजापहम् च प्राणपदं शोणितमाँसदं च।
आमाभिद्यातं कफवातहन्तृ त्वष्ठौ गुणावे कथिता हि तक्रे।।
अर्थात तक्र भूख बढ़ाने वाला, नेत्र रोग नाशक, बल की वृद्धि करने वाला, रक्त एवं मांस की वृद्धि करने वाला, आम दोष को दूर करने वाला तथा कफ एवं वात नाशक होता है।