‘धर्मार्थ काममोक्षणामारोण्यं मूलमुन्तमम्’ इस शास्त्रोक्त कथन के अनुसार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हेतु आरोग्य सम्पन्न शरीर की आवश्यकता होती है। पंचगव्य एक ऐसा तत्व है जिसके द्वारा जीवनीय तत्व (VITAMINS) हम प्राप्त कर अनेक रोगों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। गाय का उदर (पेट) जीवनीय तत्वों का अक्षय स्त्रोत होता है। पूर्व जन्म में किये गये पापों के फल कालान्तर में रोग बनकर प्रकट होते हैं। उन रोगों के शमन के लिये औषधियों के साथ-साथ दान, जप, होम तथा देवताओं का पूजन इन कार्यों को करने का विधान भी दिया गया है।
पूर्वजन्मकृतं पापं व्याधिरूपेण वाधते।
तच्छान्तिरौषधैर्दानिर्जपहोम सुरार्चनैः।।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि रोगों के निवारण के लिये देवपूजन एवं दवा दो ही माध्यम हैं। यज्ञादि समस्त धार्मिक अनुष्ठान कर्ता और आचार्य द्वारा पंचगव्य पान के अन्तर ही प्रारम्भ किये जाते हैं, क्योंकि हमारी अस्थियों में प्रविष्ठ, पापराशि को पंचगव्य उसी प्रकार नष्ट कर डालता है, जैसे लकड़ी को अग्नि भस्म कर देती है। आध्यात्मिक संदर्भ में पंचगव्य की महिमा तो है ही, शारीरिक एवं मानसिक रोगों को निर्मूल कर डालने में भी पंचगव्य अनुपम है। पंचगव्य के घटक पदार्थ गाय का दूध, गाय का घृत गोदधि, गोमूत्र, एवं गोमय (गोबर) के रोग नाशक गुणों के वर्णन से आयुर्वेद के ग्रन्थ भरे पड़े हैं। इस लेख में पंचगव्य के गुणों का वर्णन तथा पंचगव्य के घटक किन-किन रोगों पर अचूक रामबाण की तरह कार्य करते हैं, का वर्णन करना समीचीन होगा।
- गोदुग्ध– गाय का दूध अत्यंत स्वादिष्ट, स्निग्ध, रुचिकर, बल एवं शक्ति देने वाला तथा रसायन का कार्य करता है। इसके अलावा यह रक्तपित्त, जीर्णज्वर, मानसिक क्लेश, अपस्मार, मूत्रकृच्छा, अर्श (बबासीर), क्षय रोग, हृदय रोग, दाह जैसे घातक रोगों में उत्तम औषधि का कार्य करता है। धारोष्ण दुग्ध का सेवन सर्वरोग नाशक माना गया है जो धारोष्ण दूध पीते हैं वे पूर्ण स्वस्थ होते हैं तथा जहां गाय बंधी हो वहां सफाई का विशेष प्रबंध हो, साथ ही दूध निकालने वाला भी स्वच्छ हो तभी धारोष्ण दूध का सेवन करें।भारतीय आयुर्वेद-विज्ञान के मनीषियों ने पूर्व में ही औषधि एवं खाद्य की दृष्टि से गाय के दूध की महत्ता को पहचान लिया था। चरक संहिता में गाय के दूध के दस गुणों का वर्णन किया गया है।
स्वादु शीत मृदु स्निग्धं बहलं श्लक्ष्ण पिच्छलम्।
गुरु मन्दं प्रसन्न च गव्यं दशगुण पयः।।
अर्थात गाय के दूध में स्वादिष्ट, शीत, कोमल, चिकना, गाढ़ा, सौम्य, लसदार, भारी एवं बाह्य प्रभाव को विलम्ब से ग्रहण करने वाले तथा मन को प्रसन्न करने वाले दस गुण होते हैं। इतना ही नहीं प्रातः काल का दुहा हुआ दूध, दिन का दुहा दूध एवं सांयकाल का दुहा हुआ दूध अलग-अलग प्रभाव रखता है इसका विषद विश्लेषण भाव प्रकाश ग्रन्थ में दिया गया है। जैसे-
वृष्यं वृहणमग्निदीपनकर पूर्वाह्मकाले पयो
मध्याह्मे तु बलावहं कफ हरं पीत्तापहं दीपनम्।
बाले वृद्धिकरं क्षयेऽक्षयकरं वृद्धेषु रेतोवहं
रात्रौ पथ्यमनेकदोष शमनं चक्षुहितं संस्मृतम।।
दूध दोपहर के पहले वीर्यवर्द्धक एवं अग्निदीपक तथा दोपहर में बलकारण एवं कफ को नष्ट करने वाला, पित्त को हरने वाला और मंदाग्नि को नष्ट करने वाला, बालकों को पुष्ट करने वाला एवं वृद्धावस्था में क्षय नाशक और शुक्रवर्द्धक होता है। प्रतिदिन रात्रि में सेवन करने से दूध अनेक दोषों को दूर करता है इसलिये सदैव सेवनीय है।
आधुनिक चिकित्सा शास्त्रियों ने भी गाय के दूध में विटामिन ए, बी, सी, डी, ई तथा अन्य पोषक एवं दोषनिवारक तत्वों का पता लगाकर ‘गवाक्षीर रसायनम्’ इस उक्ति को चरितार्थ कर दिखाया है।
- गोदधि– सुश्रुत संहिता में गाय के दही के गुण इस प्रकार बताये गये हैंः –
स्निग्धं विपाके दीपनं बलवर्द्धनम।
वातापहं पवित्र च दघि गव्यं रुचिप्रदम्।।
अर्थात गाय के दूध का दही, स्निग्ध, मधुर, क्षुधावर्द्धक, बलवर्द्धक, वातनाशक, पवित्र एवं भोजन में रुचि प्रदान करने वाला होता है। गाय का दही अनेक रोगों को जड़मूल से नष्ट करने वाला माना गया है। वातजन्य, अर्श (बवासीर) मूत्रकृच्छ, उदरशूल, सूर्यावर्त (आधाशीशी) रोगों के लिये यह अत्यंत प्रभावशाली है। इतना ही नहीं मधु, मक्खन, पीपल, सोंठ, कालीमिर्च, वच, सेंधा नमक बराबर-बराबर मात्रा लेकर उतनी ही मात्रा में गाय का दही मिलाकर तुरन्त पिलाने से सर्प विष भी दूर हो जाता है। गाय के मठ्ठे का तो कहना ही क्या। कहा जाता है ‘तक्रं शक्रस्य दुर्लभम्’ अर्थात छाछ देवराज इन्द्र को भी दुर्लभ है। इसके सेवन से बवासीर, प्रमेंह, संग्रहणीय अजीर्ण, भंगन्दर, विषमज्वर, मल विवन्ध, उदरकृमि, सूजन, अरुचि आदि भंयकर रोग भी विनष्ट हो जाते हैं। सेंधा नमक व अजवायन मिलाकर मठ्ठा पीने से मलविबन्ध (ब्वदजपचंजपवद) तुरन्त दूर हो जाता है।
दही किस ऋतु में खानी चाहिये तथा किस ऋतु में नहीं खानी चाहिये सुश्रुत संहिता में इसका उल्लेख इस प्रकार है-
शरद्ग्रीष्मवसन्तेषु प्रायशोदधि गर्हितम्।
हेमन्ते, शिशिरे चैव वर्षासु दधि शस्यते।।
अर्थात शरद, ग्रीष्म एवं बसंन्त ऋतुओं में दही नहीं खाना चाहिये। हेमन्त, शिशिर एवं वर्षाऋतु में दही खाना ठीक होता है।
- गोधृत- गाय के घी में असंख्य गुण हैं। आधुनिक चिकित्सा 40 वर्ष के बाद घी खाने को मना करती हैं, परन्तु आयुर्वेद के विद्वानों ने तो आयुबर्द्धते घृतम् कहते हुये घी को आयु का पर्याय माना है। घी के गुणों के संबंध में इससे सटीक बात और क्या हो सकती है। सुश्रुत संहिता में घी के बारे में इस प्रकार वर्णन किया गया है-
विपाके मधुरं शीतं वातपित्त विषापहम्।
वायुष्यमग्रयं वल्यं च गव्यं सर्पिगुणोत्तरम्।।
गाय का घी गुणों में सर्वश्रेष्ठ होता है। वह विपाक में मधुर शीतल, वात, पित्त, एवं विष का नाश करने वाला, आंखों की ज्योति एवं शक्ति को बढ़ाने वाला होता है। आंख, कान, नाक के रोगों, खांसी, कोढ़, मूच्र्छा, ज्वर, कृमि और वात, पित्त, कफ जन्य विष के उपद्रवों में गाय का घी महोषधि का कार्य करता है। गाय का घी जितना पुराना होगा उतना ही गुणकारी होता है। एक वर्ष पुराना घी ‘जीर्ण’, सौ से एक हजार वर्ष तक पुराना ‘कौम्भ’, ग्यारह सौ वर्षों से अधिक पुराना घी ‘महाघृत’ कहलाता है। गाय का घी, दूध एवं दही प्राचीन काल से हमारे भोजन के अभिन्न अंग रहे हैं।
- गोमूत्र– पंचगव्य में गोमूत्र महोषधि है इसमें कार्बाेलिक एसिड, पोटेशियम, कैलशियम, मैगनेशियम, फास्फेट, पोटाश, अमोनिया, क्रियोटिनिन, नाइट्रोजन, लैक्टोज, हारमोन्स तथा अनेक प्राकृतिक लवण पाये जाते हैं। जो मानव शरीर की शुद्धि तथा पोषण करते है। दन्त रोग में गोमूत्र का कुल्ला करने से दांत का दर्द ठीक हो जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि इसमें कार्बोलिक ऐसिड विद्यमान है। बच्चों के सूखा रोग में गोमूत्र में विद्यमान कैलशियम हड्डियों को मजबूत बनाता है। गोमूत्र का लैक्टोज बच्चों एवं बूढ़ों को प्रोटीन प्रदान करता है। हृदय की पेशियों को टोनअप करता है। वृद्धावस्था में दिमाग को कमजोर नहीं होने देता। महिलाओं में हिस्टीरिया जनित मानस रोगों को रोकता है। यह सिफलिस, गनेरिया जैसे यौन रोगों को मिटाता है। अगर गोमूत्र में गिलोय एवं अनन्तमूल का रस अथवा 5 ग्राम सूखाचूर्ण मिलाकर दिया जाय तो यौन रोग शीघ्र ठीक हो जाते हैं। शक्तिशाली एन्टीबायोटिक दवाइयों के सेवन से ठीक यौन रोग पुनः संक्रमित हो सकते हैं परन्तु गोमूत्र से ठीक किया गया यौन रोग कभी दुबारा नहीं हो सकता। इसके अलावा गोमूत्र से पाण्डु, कण्डू, (खुजली) अर्श, कुष्ठ, त्वचारोग, मूत्र रोग, दमा, अतिसार जैसे कठिन रोग दूर हो जाते हैं।
5- गोमय (गोबर)- रोगों के कीटाणु एवं दूषित गन्ध को दूर करने में गोबर अत्यन्त उपयोगी है। हमारी भारतीय संस्कृति में पूर्वकाल में प्रत्येक घर आंगन एवं रसोई गोबर से पी जाती थी। किसी भी मांगलिक कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व गोबर से भूमि का लेपन अनिवार्य माना जाता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में जहां पक्के मकान नहीं हैं उन मकानों की दीवारों को तथा गर्भगृह को गोबर से ही लेपा जाता है यहां तक कि किसी देव पूजन में शादी ब्याह में गाय के गोबर से भगवान गणेश बनाये जाते हैं और उनकी पूजा सर्वप्रथम की जाती है।
गोबर की राख भी अत्यन्त गुणकारी होती है। ग्रामीण क्षेत्र में जब कीटनाशक औषधियों का प्रचलन नहीं था तो अनाज को खास कर गेहूं को कोठार में रखने से पूर्व गोबर की राख में खूब मांड कर रखा जाता था ताकि घुन न लग सके।
पंचगव्य बनाने की विधि एवं सेवन- पंचगव्य निर्माण के संबंध में गायों के रंगों का भी विवरण दिया गया है-
गोमूत्र ताम्र वर्णायाः श्वेतायाश्चैव गोमयम्।
पयः कांच्चन वर्णावा नीलाया एव वै दधि।।
घृतं तु सर्ववर्णायाः सर्वे कलिपमेव वा।
अर्थात लाल रंग (ताम्र वर्ण) की गाय का मूत्र और श्वेत गाय का गोबर, काॅचनवर्ण की गाय का दूध, नीले रंग की गाय का दही, चितकबरी गाय का घी अथवा पांचों वस्तुयें कपिला याने स्वर्णवर्ण की गाय के ही हो सकते हैं। इन पांचों द्रव्यों का अनुपात निम्न प्रकार से है।
गोमूत्रभागतस्यार्धं शकृतक्षीरस्य तत्, त्रयम्।
द्ववं दध्नो धृतस्यैक एकश्च कुशवारिणः ।।
अर्थात पंचगव्य में एक भाग घृत, एक भाग गोमूत्र, आधा भाग गोबर, दो भाग दही तथा तीन भाग दूध होना चाहिये। स्पष्ट रूप से कहा जाय तो पंचगव्य के घटकों का नाम होना चाहिये तो वह निम्न प्रकार है-
- छना हुआ गोमूत्र 5 चम्मच, कपड़े में रखकर निचोड़ा गया गोमय (गोबर) रस 1 चम्मच गो दुग्ध, 2 चम्मच गोदधि, 1 चम्मच गोघृत तथा इसके साथ में शुद्ध मधु 2 चम्मच इन छः वस्तुओं को कांच की कटोरी में रखकर मिलायें प्रातः मुख शुद्धि के बाद थोड़ा जल पीकर पंचगव्य धीरे-धीरे पीना चाहिये। आदत पड़ने से यह जलपान की तरह आपको पुष्ट करेगा। सर्दियों में पंचगव्य की मात्रा बढ़ा देने से जलपान की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पंचगव्य प्रारम्भ करने से पूर्व एक सप्ताह तक त्रिफला, गोमूत्र अथवा गर्म दूध में घृत डालकर पेट साफ कर लें तभी पंचगव्य का सेवन अधिक लाभकर होगा। गर्भवती महिलाओं को विटामिन के कैप्सूल खिलाये जाते हैं। इन कैप्सूलों से गर्भवती का वजन तो बढ़ सकता है किन्तु गर्भस्थ शिशु को लाभ नहीं मिलता। परन्तु पंचगव्य गर्भस्थ शिशु को परिपुष्ट करता है तथा प्रसव भी स्वाभाविक रूप में होता है और जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ रहते हैं। प्रसव के बाद पंचगव्य में घी की मात्रा बढ़ाने से शरीर की कमजोरी जल्दी दूर होती है। शीतकाल में गो दुग्ध में किसमिस एवं खजूर को कूटकर मिलाकर पीने से पुरुषों में पुरुषत्व की वृद्धि होती है।
भारत के अलावा अन्य देशों में जहां जर्सी गायें होती हैं वहां पंचगव्य नहीं बन सकता है क्योंकि जर्सी गाय पंचगव्य योग्य नहीं होती। धार्मिक अनुष्ठानों में भी इन गायों का पंचगव्य का आधार गोबर एवं गोमूत्र का निषेध है। वहां धार्मिक अनुष्ठान सिर्फ गंगाजल से ही सम्पन्न हो सकते हैं।