लौटकर आ गये हम अपने आशियाने में।
अपना साथी न रहा अब कोई ज़माने में।।
अब तो लगती हैं बहारें भी खि़ज़ॉ की मानिन्द।1
दिल बहलता नहीं फूलों के मुस्कुराने में।।
हम पे क्या गुज़री मौहब्बत में, बताऐं किसको।
कोई सुनता ही नहीं हाले-दिल ज़माने में।।
खुद को भी कर दिया बरबाद किसी की ख़ातिर।
बहारें फिर भी न आयीं ग़रीबख़ाने में।।
शमा जलाई थी हमने कि रोशनी होगी।
लगा दी आग मगर उसने आशियाने में।।
आज तक फूल समझती रही दुनिया उनको।
मिले हैं ज़ख़्म किसी से जो दिल लगाने में।।
भुलाया जा नहीं सकता किसी का प्यार कभी।
गुज़ार भी दें अगर उम्र भूल जाने में।।
वो जिसके प्यार को समझा था जिन्दगी ‘आलम’।
कसर न उसने कोई छोड़ी दिल दुखाने में।।
- खि़ज़ॉ की मानिन्द = पतझड़ की तरह।