एक तुम,
मेरे प्राणों में क्या जगी,
टूट गए अवरोध सारे।
बह गया भेद मझधार और किनारों का,
डूब गया अन्तर रोशनी के सैलाब में,
सूरज और तारों का।
आभासित होती रही बस तुम, केवल तुम!
देह की सीमाऐं सब खो गयी,
तुम से क्या मिली असीम हो गयी।
मन की व्यथाएँ आनंद के पारावार में
डूबने उतराने लगी,
चारों तरफ तुम्हारी छवि नजर आने लगी।
साँझ भी ढली रात भी घिरी,
गिरता रहा अँधेरा परत-दर-परत,
पर लील न सका रोशनी की इस बूँद को,
अनकहे आनंद में लीन इन प्राणों को,
तमस की कालिमा फिर न गहरा सकी,
अवसाद की बदली फिर न छा सकी।
एक तुम,
मेरे प्राणों में क्या जगी,
कि जाग गए मेरे और तुम्हारे अटूट-
सम्बन्धों के अहसास!
मेरे भीतर का शिवत्व,
संसार में गहराता जा रहा है,
मेरा अहं, तुझमें समाता जा रहा है,
तुम क्या जगी,
कि मैं ही जाग गया,
इस हृदय से, द्वेष गया, राग गया।
देख कर अपना ही अभिनव सौन्दर्य,
आँखें रह गयी ठगी!
एक तुम,
मेरे प्राणों के भीतर क्या जगी!!