नहीं फरक अब गांव शहर में दोनों का है बुरा हाल
दरियादिल की बात नहीं अब गांव हुए कंगाल
घर-घर हिंसा तू तू मैं मैं घृणा नफरत का छाता जाल
मदिरा की तो बात न पूछो मन्दिर का भी नहीं खयाल!
हरियाली और तीज त्यौहारों की अब नहीं बहार
सावन रूठा, झूला भूले! गीतों का नहीं कहीं दुलार
नहीं मिलन है, नहीं चलन है, चौपालों पर हुआ अन्धकार
खेती-पाती बेच डाली मचा हुआ है व्यभिचार।
राजनीति और कूटनीति के घट-घट बड़े खिलाड़ी
जात-पांत की लंगड़ी मारे चलाते अपनी गाड़ी
खास किसम का लम्बा कुरता, काले चश्मे, सजती छोटी दाड़ी
सरकारी ठेकों से छकते खूब कमाई गाढ़ी।
कमीशन के उद्योगों से पनप रहे दरवेश
समाजवाद का अन्त होता पूंजीवाद का श्रीगणेश
कौड़ी के भाव हीरे बिकते आमंत्रित करते विदेशी निवेश
साक्षी है इतिहास पुराना राष्ट्र गुलामी में करता प्रवेश।
घटिया लोगों का बढ़ता राजनीति में दांव
लोकतन्त्र अब नाम मात्र का घपलातंत्र के बढ़ते पांव
भ्रष्टतंत्र का बोलबाला सज्जनों का होता छलाव
श्रेष्ठ समाज की दुर्गति होती तिकड़मबाजों का बनता पड़ाव।
देशवासियों, निद्रा त्यागो तुमको फिर से जगना होगा
राजनीति के इस स्वरूप को अब उखाड़ फेंकना होगा
डर काहे का! उठो वीर हो! राष्ट्र भटकता, तुमको राष्ट्र बचाना होगा
छोड़ भावुकता बुद्धिमत्ता से स्वच्छ राजनीति का सृजन करना होगा।