कहते हैं भीड़ में बुद्धि नहीं होती। जनता जब सड़क पर उतर कर भीड़ बन जाये तो उसकी रही सही बुद्धि भी चली जाती है। यों भी जिसे राजनैतिक दुनियादारी का अता न पता, वही है जनता। तभी तो यहां जैसे-जैसे लोकतंत्र मजबूत हो रहा है, वैसे वैसे लोग बहक रहे हैं।
इसे बहकना नहीं तो और क्या कहेंगे कि जनता कभी अन्ना के बहाने देश से भ्रष्टाचार मिटाने का दावा करती है तो कभी दिल्ली की गैंग रेप घटना से आक्रोशित होकर अपराधियों को तुरन्त मृत्युदण्ड देने की मांग रखती है। वह सोचती है कि उसके शोर मचाने से सब कुछ आनन-फानन में सही हो जायेगा। अपनी रौ में बहते-बहते वह भूल गई है कि लोकतंत्र में कानूनन (वह भी आमजन के लिये) इतना त्वरित कभी नहीं हो सकता कि देखते ही देखते किसी अपराधी को सूली पर चढ़ा दिया जाये। कसाब प्रकरण से प्रेरणा लेकर ऐसी अपेक्षा रखने वाले यह अवश्य सोच लें कि डेंगू से उसकी मौत के खतरे के मद्देनजर सरकार को ऐसा तीव्र कदम उठाना पड़ा था ताकि संसार के समक्ष यह संदेश न जाये कि यहां एक मच्छर पूरे सिस्टम को हिंजड़ा बना सकता है।
जनता की बुद्धि का क्या कहें! एक ओर उसे यह शिकायत रहती है कि संसद में आधे सेअधिक अपराधी हर प्रकार के अपराधी है (वह भूल जाती है कि उन्हें सड़क से संसद तक पहुंचाया किसने!) दूसरी ओर स्वयं हाथ पर हाथ धर अपनी सारी समस्याएं सुलझाने हेतु सरकार का मुंह ताकती है। यानी खुद कुएँ में कूद कर अपेक्षा करती है कि दूसरा उसे बचाये। ऐसा कैसे हो सकता है कि आप आग में हाथ डाले रहें और बिना जले रह जायें।
इसी जनता के बीच कुछ समझदार किस्म के लोग भी होते हैं। वे अपने काम से काम रखते हैं। दुर्घटनाओं को मात्र घटना और लोगों की प्रतिक्रियाओं को सिर्फ एक प्रतिक्रिया मान कर उन्हें अपने सिर से झटक देते हैं और अपने काम में लगे रहते हैं। न वे सबके साथ सड़क पर उतरने की मूर्खता करते हैं न हाथ में जलती मोमबत्ती लेकर आक्रोश दिखाते हैं।
जब तक यहां ऐसे समझदार लोग रहेंगे तब तक लोकतंत्र मजबूत रहेगा पर जैसे-जैसे इनकी संख्या कम होती जायेगी, लोकतंत्र खतरे की जद में जाता रहेगा। खतरों के आने की आहट आरम्भ हो ही गई है।