रघुनाथ सीधा सच्चा आदमी था। परन्तु किस्मत को क्या कहें- किस्मत से उसे ऐसी पत्नी मिली थी जो अपने अनुसार अत्यन्त पतिव्रता सुधड़ व बड़ा सा दिमाग रखने वाली थी। और सब कुछ तो ठीक था परन्तु अपने मुकाबले वह रघुनाथ को कम अक्लवाला भीरू-कायर जो किसी के भी बहकावे में आ जाये…. क्या-क्या समझती थी… यह बात उसे बिल्कुल पसंद न आती थी।
इसलिये वह अक्सर रघुनाथ को झिड़कती ही रहती थी… जाने क्यों। रघुनाथ की उसके सामने आते ही बोलती बन्द हो जाती थी…. रघुनाथ का अपनी तेज तर्रार पत्नी चन्द्रा से डरना सभी जानते थे। सारा गांव जानता था कि चन्द्रा के कारण ही रघुनाथ अपने दो लड़कों किशन और विशन, लड़की रत्ना को लेकर चन्द्रा सहित शेष परिवार से अलग रहने लगा था। वरना रघुनाथ के शेष तीनों भाइयों के परिवार इक्ठ्ठे रघुनाथ के माता-पिता के साथ ही रहते थे। किशन की उम्र चौदह, विशन की बारह, रत्ना सबसे छोटी नौ वर्ष की थी। दो बच्चे गांव की पाठशाला से पढ़के पड़ोस की मिडिल स्कूल में जाने लगे थे। रत्ना अभी गांव की पाठशाला में ही थी। रघुनाथ दिल्ली में किसी फैक्ट्री में नौकरी करता था। साल-छः महीने में घर का चक्कर लगा पाता था। लोगों का कहना था कि चन्द्रा उसके घर आने पर खुशी का इजहार प्रदर्शित करने के बजाय उसे उसके शेष परिवार की शिकायतों, अपने बच्चों की शिकायतों से परेशान कर देती है सो वह घर भी कम से कम आने का प्रयत्न करता है। घर में जब आराम के बजाय चन्द्रा जैसी भयानक ‘आराम हराम है’ वाली बीमारी मौजूद हो तो दूर ही रहना ठीक है। घर का दायित्व चन्द्रा ने अपने उग्र तेज स्वभाव से संभाल रखा था। आस-पड़ोस क्या सारा गांव भी चन्द्रा से कतराता था। चन्द्रा के रौब के घेरे में उसके बच्चे भी न छूटे थे। चन्द्रा धीरे-धीरे बच्चों को भी अपने अनुरूप ही ढाल रही थी। बच्चे तनिक भी गलती करते … रघुनाथ घर में होता तो चन्द्रा रघुनाथ पर ही बरस जाती… कैसे निठल्ले हो…जी तुम…बैठे-बैठे…थकते भी नहीं अरे मैं कहती हूं जब तुमसे कुछ नहीं होता क्या बच्चों को धमका भी नहीं सकते… अरे इसमें भी क्या तुम्हारी जुबान थकती है …।’
‘बच्चों पर हाथ उठाना ठीक नहीं होता’ रघुनाथ से इतना सुनते ही चन्द्रा बिफर पड़ती। … खाक …ठीक नहीं होता ठीक उन बच्चों के लिये नहीं होता होगा जिनके अच्छे बच्चे हैं… ये तो तुम्हारे जैसे निठल्लों आलसियों के बच्चे हैं अरे मैं पूछती हूं…क्या एकाध थप्पड़ से…एकाध छड़ी से क्या बिगड़ जायेगा…इनका… लगाओ इनको थप्पड़… मारो डण्डा… वरना ये भी तुम्हारे तरह ही निकाजू ही रहेंगे।
रघुनाथ को गुस्सा आ जाता वह सोचता इस औरत के लिये जिसे दुनिया मेरी पत्नी कहती है मैंने क्या नहीं कर रखा है। अपनी ओर से जितनी भी सुविधायें हो सकती है सभी कुछ जोड़ रखा है इसके लिये …तब ही यह मुझे …हमेशा ताने ही दिया करती है…ये भी नहीं सोचती कि मैं दिल्ली से छुट्टी आराम करने के लिये आता हूं …वरना दिल्ली फैक्ट्री में जो दम निकलता है…यह क्या जाने… परन्तु यह तो ऐसा समझती है कि दिल्ली में मैं आराम ही करता रहता हूं…घर आकर चैन भी नहीं करने देती… बच्चों का लाड़ दुलार भी भुला बैठता। रघुनाथ गुस्से में तमतमाता हुआ चन्द्रा पर आये गुस्से को बच्चों पर हाथ उठाकर मिटाता… इस प्रकार चन्द्रा अपने बच्चों पर रघुनाथ के प्यार भी प्रदर्शित करवाती। इस तरह से चन्द्रा अपने बच्चों को अपने ही अनुरूप बड़ा दिमाग वाला…कर्मठ बनाये जा रही थी…।
रघुनाथ दो चार रोज की छुट्टी आया था … कल ही पहुंचा था … बच्चों को कल मिठाई के साथ-साथ पिता का लाड़ प्यार वास्तविक रूप से मिला। अभी चन्द्रा का प्रभाव रघुनाथ पर नहीं पड़ा था … किशन और विशन दोनों ने आज बाप की मौजूदगी का भरपूर फायदा उठाने की सोची और सुबह होते ही… खेलने के लिये निकल पड़े…। बहुत दिन से चन्द्रा के भय से ज्यादा देर तक खेल भी न पाये थे …। सो आज पिता की मौजूदगी में उन्होंने राहत समझी। निकले तो निकले … बाहर जाकर और गांव के बच्चों की टोलियों में शामिल होकर खेलने लग गये।
किशन, विशन की टोली में जो बच्चे थे … आज कुश्ती लड़ाई का खेल खेल रहे थे… किशन और गांव के ही लड़के रग्घू कुश्ती लड़ने लगे, विशन और बाकी लड़के … उनकी कुश्ती को देखने लगे … ये केवल खेल था … वास्तविक कुश्ती न थी … बच्चे सभी इस बात का जानते थे … परन्तु कुश्ती के बीच में जोर लगाते समय ऐसा जोश आया कि रग्घू व किशन में सचमुच ही कुश्ती लड़ाई हो गयी … और इस लड़ाई में रग्घू ने किशन का पंजा पकड़ा झटका और फिर अपने शरीर से उसको धकेला तो किशन का हाथ का पंजा मुड़ा हुआ सा उसके शरीर के नीचे आ दबा … किशन के मुंह से जोर की चीख निकली … रग्घू ने अपना शरीर संभालते हुये उधर देखा तो उसके होश उड़ गये … किशन का पंजा जोड़ने वाली जगह में उसके कलाई की हड्डी … साफ ऊपर को उठी हुई …. नजर आयी …किशन का मुंह पीड़ा से विवर्ण हो गया था … वह आंख मूदकर अपने हाथ को कुहनी के ऊपर से थामने का प्रयास कर रहा था …।
‘हाथ …टूट … गया …हाथ टूट … गया…. रग्घू… ने तोड़ा … रग्घू ने किशन का हाथ तोड़ दिया’ बच्चे-कहते चिल्लाते हुये किशन की ओर बढ़े।
‘चुप … चुप… चुप… रहो … खबरदार जो कोई भी मेरे पास आया … रग्घू इधर आ …तुम लोग भी … रग्घू के पास आओ ….’ किशन ने हाथ को बाएं हाथ से थामा और बोला।
रग्घू के तो प्राण ही सूख गये थे। उसने जब किशन को बुलाते सुना तो जान में जान आई। विशन सहित सभी बच्चे रग्धू के साथ खड़े होकर किशन को देखने लगे।
…. तुम सभी सुन लो …ध्यान से सुनो …. मेरा हाथ यहां टूटा …यहां कोई कुश्ती हुई… इस बात को तुम्हें किसी को नहीं बताना है… विशन … तुझे भी … कह रहा हूं। सभी को खबरदार कर रहा हूं… खबरदार जो किसी ने कभी भी किसी से ये भी कहा… कि आज किशन और विशन हमारे साथ खेलने आये थे … मैं अपने घर जाकर जो कहूं… जो तुम सुनोगे … वही सच होगा।
तुम लोग अपने-अपने घर जाओ परन्तु खबरदार जो तुमने अपने घर में हमारा जिक्र किया’ किशन ने रग्घू सहित सबको घर भेज दिया … और अपने भाई विशन को बुलाकर आगे घर वापस लौटने का कार्यक्रम तय करने लगा।
किशन ने विशन सहित योजना बनायी … उन्होंने घर लौटने में जान बूझकर बहुत देरी की … शाम हो गयी … वे खाने पर भी नहीं पहुंचे थे … दोपहर से ही उनकी प्रतीक्षा फिर ढूंढ होने लगी थी …. परन्तु वे दोनों छिपे रहे …अपने ढूंढने वालों को देखते रहे … परन्तु सामने ना आये। योजना के मुताबिक जब खूब सांझ हो गई …. घर वाले ढूंढ़कर परेशान हो गये …. चन्द्रा का पारा सातवें आसमान पर हो गया था … रघुनाथ भी चन्द्रा के पारे को देखकर …. क्रोधित हो चला … तो पहले किशन और पीछे विशन डरते-डरते दबे पांव चलते हुये अपने मकान में दाखिल हुई।
पहले घर में कदम रखते हुये किशन पर रघुनाथ की नजर पड़ी … किशन अपने हाथों को पीछे किये हुये था…। रघुनाथ ने डण्डा पहले से ही रखा हुआ था। उसने डण्डा उठाया … घुमाया … और दे मारा सीधे किशन की कमर पर …‘ कहां थे …. इस वक्त तक … यह वक्त है घर आने का’
डण्डा पता नहीं कहां लगा किशन के शरीर पर। विशन भी तब तक घर में दाखिल हो चुका था। परन्तु किशन अचानक चीत्कार कर उठा … टूट गया … टूट गया हाथ … मेरा हाथ … हाय ….हाय… तोड़ दिया … मां …. मां …. पिताजी ने मेरा हाथ तोड़ दिया।
रघुनाथ ने सकपका कर हड़बड़ाकर किशन की ओर देखा … हाथ की हड्डी सचमुच टूटी हुई, उठी हुई नजर आयी। मैंने लड़के का हाथ तोड़ दिया रघुनाथ ‘काठ का उल्लू’ बनकर खड़ा सा रह गया… अचानक किशन के भयंकर आर्तनाद को सुनकर चन्द्रा दौड़ती हुई आयी, किशन भयंकर रूप से विलाप करते हुये कहने लगा … माँ … माँ … पिताजी ने डण्डे से मेरा हाथ … तोड़ दिया।
फिर न पूछो … क्या हुआ … चन्द्रा ने रघुनाथ की ऐसी खबर ली ऐसी खबर ली कि रघुनाथ के सात जन्मों के पुरखे भी स्वर्ग में चन्द्रा की वार्ता से हश-हश कर उठे होंगे ..। मेरे बच्चे का हाथ तोड़ दिया … तुम बाप हो … कसाई ….। भला बच्चों को ऐसा भी मारा जाता है … अरे मारना है … तो बार्डर पर जाओ … दुश्मनों को मारो … बच्चों पर बहादुरी दिखाते हो … कायर कहीं के ….।
क्या क्या नहीं कहा चन्द्रा ने…
रघुनाथ अपराधी सा चुपचाप खड़ा चन्द्रा की गालियां-ताने सुनता रहा।
रघुनाथ को किशन को अपने साथ हड्डी जुड़वाने के लिये दिल्ली ले जाना पड़ा। डेढ़-दो महीने का प्लास्टर चढ़ा रहा … परन्तु किशन का कहना था- डेढ़ महीने खूब दिल्ली की सैर रही…। रघुनाथ किशन को डेढ़ महीने तक दिल्ली घुमाता रहा। अपनी नजर में वह किशन का अपराधी था… सो वह उसको खूब प्रसन्न करने का प्रयत्न करता रहा… बदमाश किशन अपने पिता को ही झांसा देकर दिल्ली घूमने का आनंद उठाता रहा।