शिवालिक की उपत्यकाओं में बसा हुआ गांव गोंताली पहलवान भीमा के कारण प्रसिद्ध हो चुका था भीमा बहुत हट्टा कट्टा दीर्धाकार मूल रूप से तो किसान था लेकिन उसे पहलवानी करने व कुश्ती लड़ने का बहुत शौक था। यहां पहाड़ों में उसके साथ जोर लगाने वाला कोई नहीं था अतः वह मौका निकालकर फसलों आदि से समय निकालकर कुश्तियां लड़ने मैदानी क्षेत्रों में निकल जाया करता था जहां से प्रायः वह अखाड़े जीतकर ही आया करता था। उसके बारे में यही कहा जाता था कि उसका परिवार भरा पूरा था, मां-बाप, भाई-बहिन, पत्नी, बच्चे सभी कुछ, खेती भी बहुत थी। गाय-भैंस भी बहुत थी घर के मामले व खेती बाड़ी के मामले में सब ओर से खुशहाल था। बाकी और किसी चीज की कमी भी रही हो तो भी भीमा तनिक भी चिन्ता करने वाला व्यक्ति न था। परिश्रमी मेहनती भी था परिश्रम और मेहनत ने ही उसे पहलवान बना डाला था, आस पास कोई भी भीमा से मुकाबला करने व कुश्ती लड़ने की सोचने वाला भी नहीं था।
एक रात भीमा अपने डंगरों के साथ अपनी गोठ में पल्लों की छाया में आराम से सोया था कि पल्लों पर पत्थरों की बारिश हुई…भीमा की नींद उचटी… यह जानकर कि पल्लों पर कोई पत्थरों की बारिश कर रहा है …भीमा चौंक उठा… किसमें इतनी हिम्मत हुई…जो मुझे परेशान…करने की कोशिश कर रहा है वह जोर से चिल्लाया।
‘अबे कौन है? ….पत्थर क्यों फेंक रहा है….छुपकर….पत्थर मारता है….मां का लाल है तो सामने आ।’
पत्थरों की बारिश बन्द हुई…फिर एक अजीब सी आवाज़ आई…।
‘भीमा…कुश्ती लड़ोगे मेरे साथ ……हां कहो …तो आऊँ’
भीमा ठहाका लगा बैठा …वह अपनी हंसी न रोक पा रहा था …अबे क्या …मखौल कर रहा है…कौन है तू …सामने आ …डर मत …मैं तुझे कुछ न कहूँगा।
‘भीमा …..कुश्ती लड़ोगे मेरे साथ हां कहो तो आऊं’ फिर वही आवाज़ आयी।
भीमा तनिक गंभीर हुआ ….ये कौन है…, सामने क्यों नहीं आ रहा शायद मुझसे ज्यादा ही भयभीत है …इसको पुचकार कर ही बुलवाऊँ भीमा ने सोचा। वह फिर मीठे शब्दों में बोला ‘डरो मत …तुम ….जो भी हो…तुम्हें मुझसे कोई खतरा नहीं….तुम सामने तो आओ…. मुझे बताओ…तुम्हें किसी ने सताया है तो मैं उसको देख लूँगा…मुझे बताओं तो सही तुमने पत्थर फेंककर मुझे क्यों जगाया है क्या तुम्हें मेरी सहायता चाहिए।’
‘भीमा ….कुश्ती लड़ोगे मुझसे ….हां कहो तो सामने आऊँ।’ फिर वही आवाज़
‘हां लडूंगा…तेरी हड्डी पसली तोडूंगा …तब ही तुझे पता लगेगा कि भीमा की गोठ पर पत्थर बरसाना कैसा होता है सामने तो आ’
‘इसके नीचे वाले खेत में डंगरों के परे आ…डंगरों के बीच कुश्ती नहीं हो सकती आ नीचे वाले खेत में, आवाज़ आयी।’
भीमा पहलवान था…पहलवानों की मोटी बुद्धि प्रसिद्ध यूं ही नहीं हेाती उसने आव देखा न ताव…झटपट लठ्ठ उठाया…और नीचे वाले खेत में ही जाकर देखता हूं इसको ….कौन मखोल कर रहा है सोचता हुआ नीचे वाले खेत मेें उतर गया।
आस-पास गहन अंधेरा था परन्तु गोठ के पास गोठ के अलाव का प्रकाश उस खेत के लिए तो पर्याप्त था। मगर यहां तक उसका कोई प्रभाव नहीं था…क्योंकि यह खेत थोड़ा नीचाई लिए भी था।
नीचे वाले खेत में उतर कर लठ्ठ थामे भीमा अंधकार में आंखे फाड़फाड़कर देखने का प्रयास करने लगा। अचानक उसे महसूस हुआ…कि यहां देख सकता है…वह अभी तक उसको कुछ नजर नहीं आ रहा था …कि अचानक उसने अपने से थोड़ी दूरी पर एक अपने जैसे हट्टे कट्टे व्यक्ति को देखा।
तो…तू है…बोल…मेरी गोठ में क्यों पत्थर फेंके…।
‘तुझसे कुश्ती लड़ने ….तूने हां कह दिया है ….।’
‘तेरी हड्डी पसली टूट जायेगी तो मैं जिम्मेदार नहीं’
‘तेरे को कोई कुछ नहीं कहेगा बड़ी मुद्दतों के बात तो मेरी इच्छा पूरी होने वाली है ….कोई कुश्ती लड़ता ही नहीं है मैं तो ….वर्षों से ….तुझ जैसे को ढूंढ रहा हूं।’
‘अबे …तू ….क्या भूत है जो वर्षों से ….भीमा के मुख से निकला परन्तु वह जरा भी न डरा।’
‘डरे मेरी जूती ….तू …चाहे भूत है या भूत का बाप…मैं तेरी हड्डी पसली तोड़ के ही रहूंगा….साला बड़ा भूत बनके लोगों को डराता होगा।’
‘ठीक है …लगा लंगोट उसने कहा …और भीमा और वह दोनों ताल ठोक कर आमने-सामने आ पहुंचे। दोनों के पहले पंजे बड़े उलझे…फिर जो कुश्ती शुरू हुई …कभी भीमा…कभी वह भारी लड़ते हुए…दोनों की सासों की सरसरहट व गलों की गुर्राहटों से ऊपर के खेत में बंधे जानवर भी चिल्विला् उठते थे, लड़ते-लड़ते पौ फटने को हुई …तो भीमा से लड़ने वाला झटके से अलग हुआ …..।’
आज फैसला नहीं हो सका, सुबह होने वाली है मैं दिन में नहीं लड़ सकता ….आज रात को फिर से मुकाबला होगा …और वह खेत से होते हुए एक ओर को चला गया। भीमा अपने हाथ पैरों को झटकाते हुए अपनी गोठ में वापस आ गया।
दूसरे दिन ….यानि उसी रात को ठीक रात के बारह बजे भीमा की गोठ में पत्थर पड़े भीमा तुरंत जाग गया ….उसने स्वयं ही आवाज़ दी….।
आता हूं…बे…मैं तो तेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था…तेरी हड्डी पसली जब तक न तोड़ लूं…मुझे क्या नींद आ सकती है’ कहता हुआ भीमा उठा…आज उसने लठ्ठ नहीं उठायी वह तुरंत नीचे खेत में उतर गया फिर वहीं बात हुई…पहले भीमा को नीचे कुछ न दिखा…अचानक वह देखने से समर्थ हुआ…वह भूत…जो भी था दिखायी पड़ा…फिर उसने लंगोट कसी…दोनों भिड़ उठे…गुत्थम गुत्था इस तरह से हुई कि खेत रौंदा जाने लगा। उनके हुंकारो गुर्राहटों से ऊपर वाले खेत के जानवर बिलबिलाने लगे। दोनों ही हार मानने वाले न थे वे भिड़ते रहे भीमा का बदन पसीनों से समुद्र में डूबा हुआ था परन्तु वह पूरे जोश खरोश से उससे भिड़ा रहा…जब उनको लड़ते हुए पूरे तीन चार घंटे हो गये, पौ फटने को थी कि भीमा कमजोर पड़ा। भूत ने उसको दबोच लिया उसने भीमा को बेवस कर दिया …भीमा को पराजित कर उसने जाने कहां से लाकर जानवरों की हड्डियाँ उसके मुंह में ठूंस डाली। भीमा बेहोश हो गया, भूत अन्र्तधान हो गया।
सुबह गोंताली के लोगों को भीमा बेहोश निचले खेत में पड़ा मिला उसका मुंह जानवरों की हड्डियों से भरा था। जाने किसने उसके मुंह में हड्डियाँ ठूंस ठूंस कर भरी थी। उसके मुंह से हड्डियाँ निकाली गयी…उसकी हवा पानी दाव-दारू की गयी। नीम हकीम वैद्य डाक्टर बुलाये गये…भीमा की बेहोशी तो टूट गयी वह होश में तो आ गया…परन्तु उसकी ताकत जाती रही…वैद्य डॉक्टरों ने उसका बहुतेरा इलाज किया…परन्तु भीमा की ताकत वापस न आ सकी। वह निरंतर कमजोर होता चला गया और उस घटना के दो माह बाद तो चल ही बसा।