देवात्मा हिमालय की गोद में बसा उत्तराखण्ड गढ़वाल अनादिकाल से ही ऋषि-मुनियों एवं संत-महात्माओं की तपस्थली रहा है। कालान्तर में इन तपस्थलियों ने देश की भावात्मक एकता एवं अखण्डता बनाये रखने के लिये तीर्थ-यात्राओं की महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न की थी। तीर्थ यात्राओं को व्यवस्थित रूप प्रदान करने तथा अधिकतम उपयोगी बनाने में आदि शंकराचार्य ने आठवीं-नवीं शताब्दी में गढ़वाल का भ्रमणकर वैदिक-धर्म प्रतिष्ठापित किया और इन चारों हिमानी धामों, यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ तथा बदरीनाथ की तीर्थ यात्रा की परम्परा की व्यवस्था कर दी।
धार्मिक परम्परानुसार शीतकाल में लगभग 6 माह बन्द रहने के पश्चात ग्रीष्म काल प्रारम्भ होते ही बैशाखी के पावन पर्व के बाद उत्तराखण्ड के इन चारों धामों यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ तथा बदरीनाथ की पावन यात्रा प्रारम्भ होती है जहां पतित-पावनी गंगा गढ़वाल के पर्वतीय अंचल से बहने वाली अन्य सहायक जल धाराओं धवली, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी तथा भागीरथी को समेटती हुई अपने वेगवान प्रवाह का परित्याग कर मैदानी भूमि में प्रविष्ट होती है। इन चारों धामों की यात्रा का कार्यक्रम बनाने वाले उत्सुक श्रद्धालु यात्री धार्मिक परम्परानुसार ऋषिकेश से बेस्तर यमुनोत्री व गंगोत्री की यात्रा संपन्न करने के बाद केदारनाथ तथा बदरीनाथ दर्शनार्थ पहुंचते हैं।
यमुनोत्री (10,850 फुट):-
ऋषिकेश से नरेन्द्रनगर, टिहरी, धरासू, बड़कोट, हनुमानचट्टी होते हुए यमुनोत्री पहुंचने के लिए लगभग 15 किमी0 का चढ़ाई युक्त पैदल मार्ग तय करना पड़ता है। यमुना नदी के पार्श्व में यमुना जी का मंदिर, गरम जलधारा व कुंड है। इस उबलते जलकुण्ड में यात्री अपने घर से लाये चावल को डाल देते हैं। पूजा-अर्चना के बाद पके हुये चावल की पोटली को कुण्ड से बाहर निकालकर इस पके हुये चावल को सुखाकर यात्री प्रसाद स्वरूप अपने घर ले जाते हैं।
गंगोत्री (10,000 फुट):-
यमुनोत्री से लौटते हुए पुनः धरासू पहुंचकर दूसरे मार्ग से उत्तरकाशी, भटवाड़ी, हरसिल, लंका, भैरोंघाटी होते हुए गंगोत्री पहुंचते हैं। गंगोत्री तक सीधा मोटर-यातायात सुलभ है। यहां पर गंगा, यमुना, सरस्वती, भागीरथी तथा शंकराचार्य की मूर्तियां हैं। किंवदन्ती है कि यहां पर स्थित ऐतिहासिक भागीरथ शिला पर राजा भगीरथ ने तपस्या की थी। गंगोत्री से आगे 2 किमी0 की दूरी पर गाय के मुख सदृश्य आकर्षक ‘गौमुख ग्लेशियर’ (13,000 फुट) स्थित है, जहां से गंगा का प्रथम- प्रवाह दृश्यमान है।
केदारनाथ (11,750 फुट):-
केदारनाथ व बदरीनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिए ऋषिकेश से प्रस्थान कर देवप्रयाग, श्रीनगर होते हुए रुद्रप्रयाग पहुंचना पड़ता है। रुद्रप्रयाग से अलकनन्दा नदी पार कर अगस्त्यमुनि, गुप्तकाशी, रामपुर, सोनप्रयाग, गौरी कुण्ड होते हुए आगे लगभग 14 किमी0 की चढ़ाई युक्त कष्ट साध्य पैदल मार्ग की दूरी पर मंदाकिनी के पार्श्व में केदारनाथ का प्राचीन विशाल मंदिर विराजमान है। गौरीकुण्ड में मंदिर व गरम जलधारा व कुण्ड है। सोनप्रयाग से लगभग आठ किमी0 की दूरी पर पृथक मोटर मार्ग ऐतिहासिक प्राचीन मंदिर तीर्थ त्रियुगी नारायण (8,000) फुट जाता है। केदारनाथ सुप्रसिद्ध द्वादश लिंगों के मध्य स्थित है और इस भू-भाग का आधिपति माना जाता है। केदारनाथ मंदिर के अग्रभाग में बने हुये चबूतरे पर बैठकर यात्री व पर्यटक हिमाच्छादित शिखरों का आकर्षक एवं मनोहारी दृश्य देखकर अपने आपको एक बार खो बैठता है। मंदिर के पीछे स्वामी शंकराचार्य की समाधि है तथा 20-22 हजार फुट ऊंचे उन्नत हिममंडित शिखरों के मध्य से मंदाकिनी, मधुगंगा, सरस्वती गंगा, क्षीर गंगा तथा स्वर्गारोहणी के जल प्रवाह दृश्यमान हैं।
बदरीनाथ (10,300 फुट):-
बदरीनाथ जाने के लिये दो मार्ग हैं। पहला मार्ग केदारनाथ से लौटते हुये पुनः गुप्तकाशी व रुद्रप्रयाग पहुंचना पड़ता है। तब रुद्रप्रयाग से गौचर, कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग, चमोली, जोशीमठ, पाण्डुकेश्वर होते हुये बदरीनाथ पहुंचते हैं। दूसरा मार्ग केदारनाथ से लौटते हुये पुनः गुप्तकाशी से कुण्ड तथा ऊखीमठ, चोपता, मण्डल गोपेश्वर, चमोली, जोशीमठ होते हुए बदरीनाथ जाता है। इन दोनों मार्गों पर मोटरमार्ग सुलभ है। बदरीनाथ मंदिर परिक्रमा में स्वामी शंकराचार्य तथा लक्ष्मी जी के छोटे मंदिर हैं। किंवदन्ती है कि स्वामी शंकराचार्य ने बदरीनाथ भगवान की श्यामवर्ण, पत्थर की चतुर्भुज भगवान की मूर्ति को समीप नारद कुण्ड से निकालकर वर्तमान बदरीनाथ मंदिर में प्रतिस्थापित किया था। मंदिर से कुछ हटकर नीचे गरम जल का कुण्ड ‘तप्त कुण्ड’ है। मंदिर के समीप श्राद्धतीर्थ ब्रह्मलोक, गांधीघाट, शेषनेत्र व कुछ दूरी पर चरण-पादुका तीर्थ स्थल है। बदरीनाथपुरी के दोनों ओर नर-नारायण पर्वत शिखर तथा हिमाच्छादित नीलकंठ शिखर (21,700 फुट) दृश्यमान है। बदरीनाथ से तीन किमी0 की दूरी पर माता-मूर्ति का प्राचीन छोटा मंदिर तथा लगभग तीन हजार की आबादी वाला सीमान्त ग्रीष्मकालीन जनजाति ग्राम माणा बसा हुआ है। इसके पास ही व्यास गुफा, भीमपुल, केशव प्रयाग, वसुधारा तथा अलकनन्दा नदी का उद्गम स्थल अलकापुरी स्थित है।
इसके अलावा पंचकेदार नाम से पांच तीर्थ केदारनाथ, मदमहेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ तथा कल्पेश्वर और पंचबदरी नाम से पांच तीर्थ विशालबदरी, आदिबदरी, बुद्धबदरी, योगध्यान बदरी व भविष्यबदरी के दर्शनों का ही विशेष महत्व है। इसी भांति बदरीनाथ मार्ग पर अलकनन्दा में मिलने वाली पांच सहायक नदियों धवली, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी तथा भागीरथी के संगम पर क्रमशः विष्णुप्रयाग, नन्दप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग तथा देवप्रयाग (पंच प्रयाग) स्थित हैं। बदरीनाथ से 24 किमी0 की दूरी पर हिमानी सतोपंथ तीर्थ (15,000 फुट) एवं विशाल सरोवर है। उसके सामने ‘स्वर्गारोहिणी’’ का प्रेरणादायक मनोहारी दृश्य दिखाई देता है।
बदरीनाथ मंदिर देश की संस्कृति एवं भावात्मक एकता तथा श्रद्धा व सम्मान का महत्वपूर्ण प्रतीक है। दक्षिण भारत से उत्तराखण्ड में आकर स्वामी शंकराचार्य ने बदरीनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठापित की और आज भी दक्षिण में केरल राज्य के नम्बूदरीपाद ब्राह्मण मुख्य पुजारी रावल ही बदरीनाथ मंदिर की पूजा-श्रृंगार के अधिकारी हैं। मंदिर में सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध आदि धर्मावलम्बी बड़ी श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से दर्शनार्थ आकर पूजा-अर्चना करते हैं। प्राचीनकाल से ही ऋषि-महर्षियों से लेकर आज तक के संतों, ज्ञानियों एवं मनीषियों ने यहां तपस्या की। पुराणों में सर्वश्रेष्ठ तपोभूमि बदरिकाश्रम तथा उत्तराखण्ड के चारों धामों में श्रेष्ठ धाम बदरीनाथ कहा गया है:-
बहुनि संति तीर्थानी दिवि भूमि रतासु च।
बद्री सदृश्यं तीर्थ न भूतो न भविष्यति।।
देश के विभिन्न क्षेत्रों से प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु यात्री ग्रीष्मकाल में उत्तराखण्ड के इन ख्याति प्राप्त चारों धामों की पुनीत यात्रा सम्पन्न कर अपूर्व शान्ति एवं आत्मीयता का अनुभव प्राप्त कर कृत-कृत हो जाते हैं। इस भांति वे पुण्य धाम भावात्मक एकता के प्रेरणा श्रोत, अकूत श्रद्धा, सम्मान के महत्वपूर्ण प्रतीक तथा साथ ही भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के उद्गम स्थल माने जाते हैं।
इस वर्ष भी ग्रीष्मकाल आते ही उत्तराखण्ड के इन चारों हिमानी धामों की पुनीत यात्रा आरम्भ हो गई है। इस क्रम में यमुनोत्री व गंगोत्री मंदिर चार मई को, केदारनाथ मंदिर पांच मई को तथा बदरीनाथ मंदिर आठ मई को परम्परानुसार शुभ मुहूर्त पर विधिवत विशेष पूजा-अर्चना समारोह के बाद दर्शनार्थ खुल रहे हैं।