किंवदन्ती है कि श्रीराम-रावण युद्ध के समय मेघनाथ ने श्रीराम को नागपाश में बांध दिया। आकाश से युद्ध का अवलोकन कर रहे नारद जी ने भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ जी को प्रेरित किया। गरुड़ ने तुरन्त युद्धभूमि में पहुंचकर नागपाश को काटकर श्रीराम को मुक्त कर दिया। गरुड़ को नागपाश काटने पर शंका हुई। गरुड़ शंका के समाधान हेतु ब्रह्माजी के पास गये। ब्रह्माजी ने गरुड़ को शंकर जी के पास भेजा। शंकर जी ने ‘खग जाने खग ही की भाषा’ के आधार पर गरुड़ को कागभुषुण्डी के पास भेजा। रामचरित के अधिकारी ज्ञाता व वक्ता काकभुषुण्डी ने रामचरित और श्रीराम महिमा सुनकर गरुड़ की शंका का समाधान किया। योग्य गुरु पाकर गरुड़ भी अपने को धन्य समझने लगे। रामचरित मानस का यह प्रसंग सर्वश्रेष्ठ सत्संग माना जाता है।
जनपद चमोली में जोशीमठ के सामने ऊंचाई पर हाथी पर्वत शिखर (2214 फीट) की गोद में स्थित उत्तर-पूर्व दिशा में काकभुषुण्डी झील (16,800 फीट) वास्तव में सुरम्य, पवित्र प्राकृतिक प्रसिद्ध स्थल है। मान्यता है कि कि आज भी इस रहस्यमय झील के आस-पास काकभुषुण्डी की कथावाणी सुनाई देती है तथा यह प्रतीत होता है कि गरुड़ ध्यानावस्थित होकर कथा-वार्ता सुन रहे हों। इस मनोरम झील के समीप काकभुषुण्डी एवं गरुड़ की शिला-प्रतिमाएं अवस्थित हैं। यह भी मान्यता है कि अन्तसमय में कौए अपने प्राण त्यागने इसी झील के पास आते हैं। बताया गया है कि आज भी इस झील के समीप कौओं के पंख देखे जा सकते हैं। निस्संदेह विश्व में सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित इस काकभुषुण्डी झील (16,800 फीट) एवं स्थान को एक रहस्यमय पौराणिक स्थान कहा जा सकता है। इस झील की परिधि लगभग डेढ़ किमी0 बताई गई है, लम्बाई कुछ अधिक है।
बदरीनाथ मार्ग पर गोविन्द घाट (5,500 फीट) से फूलों की घाटी-हेमकुण्ड पैदल मार्ग पर गोविन्द घाट से दस किमी0 की दूरी पर पुष्पावती नदी के किनारे रमणीक घाटी व जंगल के बीच भ्यूंडार गांव (8,000 फीट) से काकभुषुण्डी की दुर्गम एवं कष्टसाध्य यात्रा प्रारम्भ होती हैं 2-3 स्थान पर उफनते नालों व नदी को पारकर दुर्गम पर्वतों के बीच निर्जन विकट-पथ प्रारम्भ होता है। नालों व नदी पर पुल के स्थान पर केवल लकड़ी के बड़े-बड़े लट्ठे रखे हुए हैं। उन पर संतुलन बनाकर चलना पड़ता है। इसके आगे रिख-उडियार गुफा, सिमरतोली-खर्क (10,000 फीट), नागतोली, डांगर खर्क (12,000 फीट) तथा एक ग्लेशियर (14,000 फीट) प्रारम्भ होता है। बीच मार्ग में विभिन्न किस्मों के फूल, देवदार आदि के जंगल, हिरन, कस्तूरी मृग, थार आदि जंगली जानवर दिखाई देते हैं। ग्लेशियर पार कर आगे चित्ताकर्षक बुग्याल राजखर्क (15,000 फीट) पहुंचा जाता है। बीहड़ रास्ता पारकर कनकूलखाल दर्रा (18,000 फीट) के दूसरी तरफ काकभुषुण्डी झील दिखाई देती है। यहां पहुंचकर अद्भुत आनन्द की अनुभूति होती है। यहां पर स्थानीय भेड़-पालक (पालसी) अपनी सैकड़ों भेड़-बकरियों के साथ 3-4 माह इसी घाटी में निवास करते हैं। ये बहुत सरल स्वभाव एवं आतिथ्य सत्कार वाले लोग होते हैं।
काकभुषुण्डी यात्रा के लिए पथ-प्रदर्शकों की नितान्त आवश्यकता होती है। पर्यटन के उद्देश्य की दृष्टि से यह ऐतिहासिक स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं दुर्लभ है। काकभुषुण्डी झील तक पहुंचने के लिए विष्णु प्रयाग तथा तपोवन से भी रास्ता जाता है। लेकिन अधिक लोकप्रिय-रमणीक एवं आम रास्ता गोविन्द घाट भ्यूंडार होते हुए जाता है। इस लगभग 24 किमी0 का पैदल चढ़ाईयुक्त रास्ता तय करने के बाद नील पर्वत की तलहटी में स्थित झील ही काकभुषुण्डी झील (ताल) कहलाती है।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार माह अगस्त 2001 में इस ऐतिहासिक प्रसिद्ध काकभुषुण्डी स्थान पर राष्ट्रसंत मोरारी बापू का टेन्ट-कालोनी बनाकर अपने भक्तों के साथ कुछ दिन तक निवास करने का सत्संग-कार्यक्रम बना रहा। वे अपने लगभग ढाई सौ की भक्तमण्डली के दल-बल के साथ काकभुषुण्डी स्थान के समीप हैलीकॉप्टर से उतरने में सफल हुए और इनके सानिध्य में यहां पर लगभग दो सप्ताह तक कथा-वार्ता, अखण्ड रामायण, भजन-कीर्तन व सत्संग आदि का धार्मिक-कार्यक्रम उत्साहपूर्वक एवं ससमारोह चलता रहा।
प्रतिवर्ष बहुत से पर्यटक एवं सैलानी माह जून से सितम्बर के मध्य अनुकूल मौसम देखते हुए इस रहस्यमय पौराणिक एवं ऐतिहासिक धार्मिक स्थल काकभुषुण्डी झील के भ्रमण का आनन्द उठाते रहते हैं और अपने को भाग्यशाली भी मानते हैं।